अमृत कलश

Sunday, September 22, 2013

"पुस्तक समीक्षा प्रारब्ध" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’) अभिव्यक्तियों का उपवन है "प्रारब्ध" -0-0-0- कुछ समय पूर्व मुझे श्रीमती आशा लता सक्सेना के काव्यसंकलन “प्रारब्ध” की प्रति डाक से मिली थी। आज इसको बाँचने का समय मिला तो “प्रारब्ध” काव्यसंग्रह के बारे में कुछ शब्द लिखने का प्रयास मैंने किया है। श्रीमती आशा लता सक्सेना जी से कभी मेरा साक्षात्कार तो नहीं हुआ लेकिन पुस्तकों के माध्यम से उनकी हिन्दी साहित्य के प्रति गहरी लगन देख कर मेरा मन गदगद हो उठा। आज साहित्य जगत में कम ही लोग ऐसे हैं जिन्होंने अपनी लेखनी को पुस्तक का रूप दिया है। इस कृति के बारे में शासकीय संस्कृत महाविद्यालय की हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. रंजना सक्सेना लिखती हैं - “श्रीमती आशा सक्सेना का काव्य संकलन ‘प्रारब्ध’ सुखात्मक और दुखात्मक अनुभूति से उत्पन्न काव्य है। पहले ‘अनकहा सच’ फिर ‘अन्तःप्रवाह’ और अब ‘प्रारब्ध’... ऐसा प्रतीत होता है मानो कवयित्री ने उस सब सच को कह डाला, जो चाह कर भी पहले कभी कह न पायी हों और अब कहने लगी तो वह प्रवाह अन्तःकरण से निरन्तर बह निकला। फिर अपने भाग्य पर कुछ क्षण के लिए ठिठक कर रह गयी और अब...लेखनी को एक हिम्मत-एक आत्मविश्वास के साथ अपना लक्ष्य मिल गया है जो निरन्तर ह्रदय से अद्भुत विचारों और भावनाओं को गति देता रहेगा।" डॉ.शशि प्रभा ब्यौहार, प्राचार्य-शासकीय संस्कृत महाविद्यालय, इन्दौर ने अपने शुभाशीष देते हुए पुस्तक के बारे में लिखा है- "मैं हूँ एक चित्रकार रंगों से चित्र सजाता हूँ। हर दिन कुछ नया करता हूँ आयाम सृजन का बढ़ता है। आशा लता सक्सेना का लेखकीय सरोकार सृजन रंगों से सराबोर जीवन यथार्थ की इसी पहचान से जुड़ा है..."प्रारब्ध" काव्य संग्रह की रचनाएँ केवल गृह, एकान्त, स्त्रीजीवन के ब्योरे मात्र नहीं हैं वरन् वे सच्चाइयाँ हैं जिन्हें बार-बार नकारा जाता है।... संग्रह का मूल स्वर आस्था, जिजीविषा है जीवन के पक्षधर इन रचनाओं में प्रत्येक से जुड़ने का सार्थक भाव है।...” श्रीमती आशा लता सक्सेना ने अपने निवेदन में भी यह स्पष्ट किया है- “मैं एक संवेदवशील भावुक महिला हूँ। आस-पास की छोटी-छोटी घटनाएं भी मुझे प्रभावित करती हैं। मन में उमड़ते विचारों और अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिए कविता लेखन को माध्यम बनाया है। अब तक लगभग 630 कविताएँ लिखी हैं। सरल और बोधगम्य भाषा में अपने विचार लिपिबद्ध किये हैं। ....मुझेघर से जो सहयोग और प्रोत्साहन मिला है वह अतुल्य है। उनके सहयोग के कारण ही मैं कुछ कर पायी हूँ। ...." "प्रारब्ध" में अपनी वेदना का स्वर मुखरित करते हुए कवयित्री कहती है- “मैं नहीं जानती क्यों तुम्हें समझ नहीं पाती तुम क्या हो क्या सोचते हो क्या प्रतिक्रिया करते हो..." कवयित्री आगे कहती है- “महकता गुलाब और गुलाबी रंग सबको अच्छा लगता है और सुगन्ध उसकी साँसों में भरती जाती है ऐ गुलाब तुम कमल से ना हो जाना जो कीचड़ में खिलता है पर उससे लिप्त नहीं होता..." कवयित्री के इस काव्य में कुछ कालजयी कविताओं का भी समावेश है जो किसी भी परिवेश और काल में सटीक प्रतीत होते हैं- “उड़ चला पंछी कटी पतंग सा, समस्त बन्धनों से हो मुक्त उस अनन्त आकाश में छोड़ा सब कुछ यहीं यूँ ही इस लोक में बन्द मुट्ठी लेकर आया था..." कवयित्री अपनी एक और कविता में कहती हैं- “दीपक ने पूछा पतंगे से मुझमें ऐसा क्या देखा तुमने जो मुझ पर मरते मिटते हो जाने कहाँ छिपे रहते हो पर पाकर सान्निध्य मेरा तुम आत्म हत्या क्यों करते हो..." श्रीमती आशा लता सक्सेना ने इस काव्य संकलन में कुछ क्षणिकाओं को भी समाहित किया है- “ज़ज़्बा प्रेम का जुनून उसे पाने का कह जाता बहुत कुछ उसके होने का..." विश्वास के प्रति अपनी वेदना प्रकट करते हुए कवयित्री कहती है- “ऐ विश्वास जरा ठहरो मुझसे मत नाता तोड़ो जीवन तुम पर टिका है केवल तुम्हीं से जुड़ा है यदि तुम ही मुझे छोड़ जाओगे अधर में मुझको लटका पाओगे..." “प्रारब्ध” की शीर्षक रचना के बारे में कवयित्री आशा लता सक्सेना लिखतीं है- “जगत एक मैदान खेल का हार जीत होती रहती जीतते-जीतते कभी पराजय का मुँह देखते विपरीत स्थिति में कभी होते विजय का जश्न मनाते राजा को रंक होते देखा रंक कभी राजा होता...!" समीक्षा की दृष्टि से मैं कृति के बारे में इतना जरूर कहना चाहूँगा कि इस काव्य संकलन में मानवता, प्रेम, सम्वेदना जिज्ञासा मणिकांचन संगम है। कृति पठनीय ही नही अपितु संग्रहणीय भी है और कृति में अतुकान्त काव्य का नैसर्गिक सौन्दर्य निहित है। जो पाठकों के हृदय पर सीधा असर करता है। श्रीमती आशा लता सक्सेना द्वारा रचित इस की प्रकाशक स्वयं श्रीमती आशा लता सक्सेना ही है। हार्डबाइंडिंग वाली इस कृति में 192 पृष्ठ हैं और इसका मूल्य मात्र 200/- रुपये है। सहजपठनीय फॉंण्ट के साथ रचनाएँ पाठकों के मन पर सीधा असर करती हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि “प्रारब्ध” काव्यसंग्रह सभी वर्ग के पाठकों में चेतना जगाने में सक्षम है। इसके साथ ही मुझे आशा है कि “प्रारब्ध” काव्य संग्रह समीक्षकों की दृष्टि से भी उपादेय सिद्ध होगा। “प्रारब्ध” श्रीमती आशा लता सक्सेना के पते सी-47, एल.आई.जी, ऋषिनगर, उज्जैन-456 010 से प्राप्त की जा सकती है। कवयित्री से दूरभाष-(0734)2521377 से भी सीधा सम्पर्क किया जा सकता है। शुभकामनाओं के साथ! समीक्षक (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’) कवि एवं साहित्यकार टनकपुर-रोड, खटीमा जिला-ऊधमसिंहनगर (उत्तराखण्ड) 262 308 E-Mail . roopchandrashastri@gmail.com Website. http://uchcharan.blogspot.com/ फोन-(05943) 250129







"पुस्तक समीक्षा प्रारब्ध" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

अभिव्यक्तियों का उपवन है "प्रारब्ध"
-0-0-0-
     कुछ समय पूर्व मुझे श्रीमती आशा लता सक्सेना के काव्यसंकलन प्रारब्ध की प्रति डाक से मिली थी। आज इसको बाँचने का समय मिला तो प्रारब्ध काव्यसंग्रह के बारे में कुछ शब्द लिखने का प्रयास मैंने किया है।
     श्रीमती आशा लता सक्सेना जी से कभी मेरा साक्षात्कार तो नहीं हुआ लेकिन पुस्तकों के माध्यम से उनकी हिन्दी साहित्य के प्रति गहरी लगन देख कर मेरा मन गदगद हो उठा। आज साहित्य जगत में कम ही लोग ऐसे हैं जिन्होंने अपनी लेखनी को पुस्तक का रूप दिया है।    
     इस कृति के बारे में शासकीय संस्कृत महाविद्यालय की हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. रंजना सक्सेना लिखती हैं -
     श्रीमती आशा सक्सेना का काव्य संकलन प्रारब्ध सुखात्मक और दुखात्मक अनुभूति से उत्पन्न काव्य है। पहले अनकहा सचफिर अन्तःप्रवाह और अब प्रारब्ध’... ऐसा प्रतीत होता है मानो कवयित्री ने उस सब सच को कह डाला, जो चाह कर भी पहले कभी कह न पायी हों और अब कहने लगी तो वह प्रवाह अन्तःकरण से निरन्तर बह निकला। फिर अपने भाग्य पर कुछ क्षण के लिए ठिठक कर रह गयी और अब...लेखनी को एक हिम्मत-एक आत्मविश्वास के साथ अपना लक्ष्य मिल गया है जो निरन्तर ह्रदय से अद्भुत विचारों और भावनाओं को गति देता रहेगा।"
    डॉ.शशि प्रभा ब्यौहार, प्राचार्य-शासकीय संस्कृत महाविद्यालय, इन्दौर ने अपने शुभाशीष देते हुए पुस्तक के बारे में लिखा है- 
    "मैं हूँ एक चित्रकार रंगों से चित्र सजाता हूँ। 
हर दिन कुछ नया करता हूँ आयाम सृजन का बढ़ता है।
      आशा लता सक्सेना का लेखकीय सरोकार सृजन रंगों से सराबोर जीवन यथार्थ की इसी पहचान से जुड़ा है..."प्रारब्ध" काव्य संग्रह की रचनाएँ केवल गृह, एकान्त, स्त्रीजीवन के ब्योरे मात्र नहीं हैं वरन् वे सच्चाइयाँ हैं जिन्हें बार-बार नकारा जाता है।... संग्रह का मूल स्वर आस्था, जिजीविषा है जीवन के पक्षधर इन रचनाओं में प्रत्येक से जुड़ने का सार्थक भाव है।...
     श्रीमती आशा लता सक्सेना ने अपने निवेदन में भी यह स्पष्ट किया है- 
    मैं एक संवेदवशील भावुक महिला हूँ। आस-पास की छोटी-छोटी घटनाएं भी मुझे प्रभावित करती हैं। मन में उमड़ते विचारों और अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिए कविता लेखन को माध्यम बनाया है।
अब तक लगभग 630 कविताएँ लिखी हैं। सरल और बोधगम्य भाषा में अपने विचार लिपिबद्ध किये हैं। ....मुझेघर से जो सहयोग और प्रोत्साहन मिला है वह अतुल्य है। उनके सहयोग के कारण ही मैं कुछ कर पायी हूँ। ...."
   "प्रारब्ध" में अपनी वेदना का स्वर मुखरित करते हुए कवयित्री कहती है-
मैं नहीं जानती
क्यों तुम्हें समझ नहीं पाती
तुम क्या हो क्या सोचते हो
क्या प्रतिक्रिया करते हो..."
      कवयित्री आगे कहती है-
महकता गुलाब और गुलाबी रंग
सबको अच्छा लगता है
और सुगन्ध
उसकी साँसों में भरती जाती है
ऐ गुलाब तुम
कमल से ना हो जाना
जो कीचड़ में खिलता है
पर उससे लिप्त नहीं होता..."
     कवयित्री के इस काव्य में कुछ कालजयी कविताओं का भी समावेश है जो किसी भी परिवेश और काल में सटीक प्रतीत होते हैं-
उड़ चला पंछी
कटी पतंग सा,
समस्त बन्धनों से हो मुक्त
उस अनन्त आकाश में
छोड़ा सब कुछ यहीं
यूँ ही इस लोक में
बन्द मुट्ठी लेकर आया था..."
    कवयित्री अपनी एक और कविता में कहती हैं-
दीपक ने पूछा पतंगे से
मुझमें ऐसा क्या देखा तुमने
जो मुझ पर मरते मिटते हो
जाने कहाँ छिपे रहते हो
पर पाकर सान्निध्य मेरा
तुम आत्म हत्या क्यों करते हो..."
     श्रीमती आशा लता सक्सेना ने इस काव्य संकलन में कुछ क्षणिकाओं को भी समाहित किया है-
ज़ज़्बा प्रेम का
जुनून उसे पाने का
कह जाता बहुत कुछ
उसके होने का..."
    विश्वास के प्रति अपनी वेदना प्रकट करते हुए कवयित्री कहती है-
ऐ विश्वास जरा ठहरो
मुझसे मत नाता तोड़ो
जीवन तुम पर टिका है
केवल तुम्हीं से जुड़ा है
यदि तुम ही मुझे छोड़ जाओगे
अधर में मुझको लटका पाओगे..."
       “प्रारब्ध” की शीर्षक रचना के बारे में कवयित्री आशा लता सक्सेना लिखतीं है-
“जगत एक मैदान खेल का
हार जीत होती रहती
जीतते-जीतते कभी
पराजय का मुँह देखते
विपरीत स्थिति में कभी होते
विजय का जश्न मनाते
राजा को रंक होते देखा
रंक कभी राजा होता...!"
      समीक्षा की दृष्टि से मैं कृति के बारे में इतना जरूर कहना चाहूँगा कि इस काव्य संकलन में मानवता, प्रेम, सम्वेदना जिज्ञासा मणिकांचन संगम है। कृति पठनीय ही नही अपितु संग्रहणीय भी है और कृति में अतुकान्त काव्य का नैसर्गिक सौन्दर्य निहित है। जो पाठकों के हृदय पर सीधा असर करता है।
      श्रीमती आशा लता सक्सेना द्वारा रचित इस की प्रकाशक स्वयं श्रीमती आशा लता सक्सेना ही है। हार्डबाइंडिंग वाली इस कृति में 192 पृष्ठ हैं और इसका मूल्य मात्र 200/- रुपये है। सहजपठनीय फॉंण्ट के साथ रचनाएँ पाठकों के मन पर सीधा असर करती हैं।
       मुझे पूरा विश्वास है कि प्रारब्धकाव्यसंग्रह सभी वर्ग के पाठकों में चेतना जगाने में सक्षम है। इसके साथ ही मुझे आशा है कि प्रारब्धकाव्य संग्रह समीक्षकों की दृष्टि से भी उपादेय सिद्ध होगा।
      प्रारब्धश्रीमती आशा लता सक्सेना के पते सी-47, एल.आई.जी, ऋषिनगर, उज्जैन-456 010 से प्राप्त की जा सकती है। कवयित्री से दूरभाष-(0734)2521377 से भी सीधा सम्पर्क किया जा सकता है।इस पुस्तक का isbn ९७८-९३-५१३७ -४१५-२ है |
शुभकामनाओं के साथ!
समीक्षक
 (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक’)
कवि एवं साहित्यकार 
टनकपुर-रोडखटीमा
जिला-ऊधमसिंहनगर (उत्तराखण्ड) 262 308
E-Mail .  roopchandrashastri@gmail.com
फोन-(05943) 250129

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